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निश्रीतता है, परन्तु पशु भी तो निश्चित जीवन पूर्ण करते हैं । तेरेमें और पशुमें क्या अंतर ?
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२ चौरासी लक्ष जीवा योनि में इस जीव ने प्रत्येक योनी में अनंतानंत जन्म और मरण किये हैं, फिर भी उन दुःखों से संतोष न मानते हुए वैसे ही दुःखदायी कर्मों के हेतु अनन्त पुरुषार्थ युक्त प्रयत्न करता है, यह नितान्त आश्चर्य की बात है ।
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३ ज्ञानी अज्ञानी को दया का पात्र समझता है । वैसी दशा में अज्ञानी भी ज्ञानी को दयनीय समझने लगता है । उनके वचन को बकवाद समझकर नित्य पाप प्रवृत्ति बढाता जाता है। और पश्चाताप के स्थान में प्रसन्न होता है । अपने पापमय जीवन को पवित्र मानता है, और स्वर्ग या अपवर्ग (मोक्ष) के सुख को नारकीय दुःख से भी विशेष घृणास्पद मानकर घृणा करता है ।
४ ऐसा एक भी जीव नहीं है कि जिसके साथ अनंत वार शत्रु या मित्र रूप से संबन्ध न हुआ हो । ऐसा होने पर भी मिथ्यात्वी उसे मिथ्या मान के यह मेरा और यह तेरा करके, राग द्वेप रूप कर्म संचय कर भारी होरहा है, जिससे वह अनंत संसार में भटकता है !
५ वालाग्र रखने जितनी एक भी जगह नहीं है, जहां पर इस जीव ने अनंत बार जन्म और मरण न किये हों, तदपि वर्तमान में अपने को अजर और अमर मानर पाप कर्म का बंधन करता है ।
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