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( ९४ ) धर्म कोई पर वस्तु नहीं है किन्तु यह तो आत्म-स्वभाव ही है । अज्ञानी परवस्तु मानता है ।
( ९५ ) वीरता सहित कष्ट सहन करता है वह साधु ( ९६ ) आये हुए कष्टों को सहन करने का यत्न करता है वह श्रावक और समदृष्टि |
( ९७ ) ज्ञानी दुःख को आमन्त्रण देता है, उदीरणा करता है तब अज्ञानी दुःखसे रोता है ।
( ९८ ) मुक्ति कोई वस्तु का नाम नहीं है किन्तु राग द्वेप से मुक्त होना ही मुक्ति है ।
( ९९ ) इच्छाका घटाना सुख और बढाना दुख है । (१००) ज्ञान रहित मनुष्य यंत्र जैसा है ।
कर्म बत्तीसी ।
१ आत्मा और कर्म का अनादि से सम्बन्ध है ।
२ यत्न किया जाय तो आत्मा कर्म रहित शुद्ध स्वरूपवान् होसकती है ।
३ आत्मा अनंत बलवान है आत्मा के सामने कर्म की सत्ता अत्यन्त बलहीन है । क्योंकि कर्मजड है । ४ आत्मा के साथ कर्म बलात्कार नहीं करते । ५ कर्म प्रलोभन के साधन-संयोग प्राप्त कराता है । ६ निर्बल आत्मा प्रलोभनों में फंस जाती है और उसका पराजय होजाता है । सबल आत्मा प्रलोभनों में नहीं फंसती और कर्म का नाश कर देती है ।