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अब यह बतलाइये कि आपकी संपत्ति की अधिकता के कारण आपके पाप बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं ! लालाजी ने उत्तर में निवेदन किया कि " महाराज श्री! यह, हमारी सम्पत्ति नहीं है। यहतो विपत्ति प्रतीत होती है"। लालाजी ! जो संपत्ति धर्म में साधक न हो वह संपत्ति संपत्ति नहीं. किन्तु विपत्ती ही है। श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र मे 'नियाणा' का अधिकार चलता है । उसमें बहुत से मुनिराजों ने गरीब कुल में उत्पन्न होने का नियाणा किया है । इसका यह मतलब है कि संपत्ति युक्त कुल में जन्म लेने से नाना प्रकार के विषय विलास में फंस जाते हैं जिससे विलासी प्रकृति बनजाती है। विलासी प्रकृति वाले को धार्मिक क्रियाएं प्रतिकूल दिखाई देती है लेकिन निधन के लिये धर्म आराधना करना सहज एवं सरल है। निर्धन मनुष्य को दुःखानुभव होने से वह धर्म के सन्मुख शीघ्र ही हो सकता है । धनवान् से धन का मोह छूटना मुश्किल है। अतएव धन जितना सुखप्रद है उतना ही दुःखदायक भी है, याने धनवान् जितना सुखी है उतना दुःखी भी है।
" धनंदुःख विवढणं," अर्थात् धन दुःखों का बढाने वाला है। यह शास्त्र का कथन है अनुभवी इस तथ्य को समझ सकता है। आरंभ और परिग्रह से जब तक उदासीनता न हो तब तक जीव धर्म के सन्मुख नहीं होसकता है धर्म ही इसलोक और परलोक में सुख