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________________ ( ८१ ) घटा दिया है। वर्तमान में कोई आर्यकुलोत्पन्न व्यक्ति मांस भक्षण करले तो समाज से उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है। इसी तरह प्राचीन काल में मृपावादी का भी बहिष्कार कर दिया जाता था। मृपावाद महान् पाप है। शास्त्रकारोंने अन्य पापोंको नदीके समान और मृपावादको समुद्र के समान बतलाया है। जिस प्रकार समुद्र में सब नदियां आकर मिलती हैं उसी तरह मृपावादी में विश्वभर के दोप आकर इकट्ठे हो जाते हैं। परदेशी राजा के समान पापी को भगवान दीक्षा दे सकते हैं और उन्हें श्रावकत्व की दीक्षा दी थी। लेकिन मृपावादीको सम्यक्त्व, श्रावकत्व अथवा साधुत्व इनमें से किसी भी प्रकार की दीक्षा नहीं दी जा सकती है। अन्य किसी भी व्रत का भंग करने वाला एक उसी व्रतभंग का दोपी है लेकिन मृपावादी सब व्रतों का भंग करनेवाला होता है। इसलिये जिस प्रकार यंत्र अथवा अन्य पदार्थों की हिफाजत एवं सदुपयोग किया जाता है उसी प्रकार पांचों इंद्रियों का भी सदुपयोग किया जाना चाहिये । इंद्रियों का दुरुपयोग नहीं होने वावद पूरा लक्ष रखना चाहिये । इंद्रियों का दुरुपयोग ही आश्रव है और उनका सदुपयोग ही संवर । संवर नये कमों को आने से रोकता है और निझरा तप से पुराने संचिव कमां का क्षय होता है। पुराने कमों का क्षय करना और नये कों को आने से रोकना यही मोक्षप्राप्ति का साधन है।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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