SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७५ ) रहित जीवों के लिये उपरोक्त साधन उसके हितमें बहुत चुरे हैं। पाठकों ! यह पुस्तक कथा कहानी की नहीं है। इसकी प्रत्येक बात आत्म सुधार का लक्ष्य रख कर लिखी गई है । अतएव इसके प्रत्येक विषय को खूब ध्यान पूर्वक पढ़ें और उसपर विचार एवं मनन करें। मनन करने के उपरांत हृदय में धारण करके अपने जीवन में घटावें । पुस्तक का पढ़ना ग्रास को मुंह में रखने के बराबर है । विचार करना उसे चबाने के बराबर है । मनन करना उसका रस बनाने के समान है। हृदय में धारण करना जठराग्नि में डालने के तुल्य है। जठराग्नि में व्यवस्थित अन्न पहुंचने पर ही वह शक्ति रूपमें परिणत होकर प्रत्येक अंगोपांग को बल प्रदान करता है। इसी प्रकार उपरोक्त विधि से पुस्तक ज्ञान रूपी भोजन करने वालेको यह पुस्तक लाभदायक होगी। अन्यथा विना विधिसे खाया हुआ अन्न ज्यों का त्यों दुर्गधित मल के रूप में मलद्वार से बाहर निकल जाता है। ___ जिस समाज को भोजन करने का भी पूरा ज्ञान नही है उसमें आध्यात्मिक तत्वों का पाचन करने की शक्ति कहांसे आवे? इतने व्याख्यान सुनने में आते हैं तो भी आत्मा में परिवर्तन होता हुआ नजरमें कम आता है । प्रायः श्रोता तथा वक्ता की स्थिति चलनी में दृध दुहने के समान है । वक्ता मुनिराज जिनवाणी-रूपी
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy