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शृंगार करा के अपनी चक्षु इंद्रिय की तृप्ति करता (३) सिर में तैल व कान में अत्तर डालकर घ्राणेंद्रियों के विषय को पोषित करते हैं (४) उपवास करो या न करो किन्तु संवत्सरी के अगले रोज वढिया मिठाई बना कर ठसाठस पेट भरा जाता है. अगर पेट में समा सके तो कई दिन तक खा सकें इतने लड्डू भरलें किन्तु क्याकरें पेट में एक दिनकी खुराक की अपेक्षा विशेष लड्डू समा नहीं सकते हैं. उपवास के रोज संध्या होते ही पारणे के विचार आया करते हैं (५) स्पेशेंद्रियः - कोमल रेशम के कीडों के वस्त्र से शरीर सजाया जाता है इस प्रकार संवत्सरी के रोज पांचों इंद्रियों का भोग भोगा जाता है उस रोज भोगों को त्याग मानकर भी पांचो इंद्रियो का भोग भोगा जाता है व ऐसी क्रियाओं से स्वर्ग और मोक्ष की आशा रखी जाती है संवत्सरी के रोज विषय कपाय घटाने के बदले नित्य की अपेक्षा विशेष रुपसे विषय कपाय बढाने की क्रिया पूर्ण की जाती है. कीमती वस्त्र व आभूषण पहिन कर आज संवत्सरी के रोज मोह भाव बढाया जाता है- मान की मात्रा पोषित की जाती है. व वैसा विकारी शरीर व मन बनाकर धर्म स्थान में धर्म ध्यान के लिये जनता आती है यह कितने आश्चर्य की बात है लोकोत्तर धर्म ने लौकिक स्वरुप धारण कर लिया है. धर्म स्थानक यह अपनी श्रीमंती बढ़ाने के लिये प्रदन बन गया है विलासी चमकले भडकले वस्त्रों को