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________________ ( ५२ ) 1 भिन्न २ मनुष्यो की भिन्न भिन्न रुचि रहती है. सबकी रुचि एकसी नहीं होती क्योंकि सबकी प्रकृति भिन्न २ है जैसे एकही बीज के बने हुए वृक्ष की डालियां दशों दिशाओं मे फैलती हैं अगर वे डालियां एक ही दिशा में झुक जावंगी तो विशेष वजन होकर सब गिर जावेगी वैसे ही धर्म यह वृक्ष है और संप्रदाय ये डालियां हैं. और वे भी वृक्ष की तरह शोभा का रुप धारण कर सकती हैं. किन्तु जब उनमें संप्रदायांधता आ जाती है तब वे संप्रदाय संपमें दाह का काम करती हैं एक एक संप्रदाय अपने को एक दूसरे से भिन्न व शत्रु समझती हैं. सब एक दूसरे की जड़ काटने की कोशीश करती हैं जिससे धर्म का नाश सन्निकट दिखाई देता है. धर्म में गुणग्राहकता, स्वदोप दर्शक बुद्धि, समता, सरलता और शांति हैं. परन्तु सांप्रदायिकता में उससे विपरीत पर दोष दर्शन, पर लघुता, स्वगुरुता, विषमता, वक्रता, अशांति, आदि दोप का आदर किया जाता है. धर्म यह वर्षा के जल समान पवित्र है. सांप्रदायिकता के बडे में आजाने से वह त्राह्मण का व भंगी का कहलाता है. पवित्र जल घंडे के संग से ब्राह्मण और भंगी जितनी भिन्नता धारण करता है, सांप्रदायिकता के कारण धार्मिक क्रियाएं भी यंत्र की तरह डिनिया में बंद कर दी गई हैं. फोनोग्राफ बाजे की तरह प्रतिक्रमण स्वाध्याय किया जाता है और उसमें की निर्जरा मानी जाती है. रेती के खिरने से व बडी J
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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