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( ३८ ) संसार मे धर्म की जड कितनी गहरी है. धर्म विश्व के प्राण समान है किन्तु आज अज्ञान प्राणी धर्म को बिलकुल ही भूल गये हैं और उसकी जड काट रहे हैं जितने अंश में राज्य शाशन कर्ताओं ने धर्म की शरण ली है उतने ही अंश में धर्म का अस्तित्व है और उतने ही अंश में राज्यव्यवस्था सुव्यवस्थित दिख रही है अगर राज्य व्यवस्था धार्मिक नियमों की नींव पर न बनी होती तो मानव जीवन पशु जीवन से भी ज्यादे घृणास्पद दिखाई पड़ता. चैतन्य रहित मुर्दा शरीर जलाने योग्य है उसी तरह संसार भी धर्म तत्व विना श्मशान तुल्य है और उसमें बसने वाले प्राणी हिलते चलते हाड मांस के पिंजर मात्र हैं. बंधुओं ! क्या हाड मांस का पिंजर मय जीवन विताना है,? क्या मनुष्य जन्म जो कि अनंत जन्मों के शुभ कर्म के फल स्वरूप प्राप्त हुआ है उसको व्यर्थ में ही गुमाना है ?
धर्म तत्व अहिंसा, सत्य, आचौर्य ब्रह्मचर्य व संतोप व्रत की आराधना कीजियेगा जिससे इस भव में व अन्य भव में आप को सुख की प्राप्ति हो सकेगी. वही धर्म है कि जिससे इस जन्म में व अन्य जन्म में शांति मिले जिस धर्म से इस जन्म में शांति न मिले व इस जीवन में उन्नति न हो वह धर्म ही नहीं है किन्तु पाखंड मात्र है राज्य ने धार्मिक समुद्र जैसे विशाल तत्वों में से विंदु जितना धार्मिक अंश अपनी • नुकूलता के लिये कानून बनाने में ग्रहण किया है जिसके