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( १२ ) शरीर को ही सर्वस्व मान रखा है। शरीर के लिये सारे जीवन को होम देता है । उसके क्षणिक सुखके लिय अनंत जीवों से वैर बांधकर अनंतकाल तक अनंत दुःख भोगता है। मनुप्य की सब क्रियाएं सावध हैं और प्रत्येक क्रिया करने में अनंत जीवों की विराधना होती है।
मनुप्य शरीर रक्षा के संबंध में बहुत सतर्क रहता है। भृल से या स्वप्न में भी कभी शरीर का नाश करने वाले पदार्थ अग्नि, सर्प तथा सिंहादि का स्पर्श नहीं करता है। दिन में तथा रातमें आंखों को खुली रखकर चलता है और प्रत्येक पैर सावधानी से आगे रखता जाता है कि कहीं कांटा कंकर नहीं चुभ जाय । शरीररक्षा के प्रति इतनी सावधानी रखी जाती है किन्तु आत्मरक्षा के प्रति विलकुल ही उपेक्षा की जाती है।
हिंसा, विषय, और कषाय आत्मा के कट्टर दुश्मन हैं। उनसे सावधान रहने के लिये शास्त्रकार वारवार चेतावनी देते हैं। फिर भी अज्ञानी मनुष्य उन पर ध्यान नहीं देता है । वह अनंत ज्ञानी का विरोधी बनकर उनके वचनों की उपेक्षा करता हुआ निर्भय जीवन व्यतीत करता है।
श्रद्धा दो प्रकार की है, सजीव और निर्जीव । जिस वात को केवल बुद्धि ही स्वीकार करे वह निर्जीव श्रद्धा
है और जिसे बुद्धि तथा हृदय दोनों स्वीकार करले वह . . सजीव । सर्प में विष, अग्नि में दाहकता तथा अफीम में