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(१६) पुत्र कहलात हो धर्म माता पिता या वैद्य के समान है रोगी रुग्णावस्था मे वैद्य की खुशामद करता है पर रोग का नाश होजाने पर वैद्य के पास जाकर भी नहीं फटकता है बल्कि वैद्य से मुंह छिपाकर फिरता है. क्योंकि उसे डर है कि कहीं वैद्य कुछ मांग न बैठे इसी तरह धर्म रुपी वैद्य ने आपके इस जीवका ८४ लाख जीवायोनीयों से उद्धार किया है. पर आप अब इस धर्म रुपी वैद्य से मुंह छिपाते हैं क्योंकि आप को यह डर है, कि धर्म रुपी वैद्य के पास अब जावेगे तो दान शील तप आदि करना पडेंगे.
बालकको जहां तक दांत नहीं निकलते हैं और जहां तक उसमें चलने की शक्ति पैदा नहीं होती है वहां तक वह माता से खुब स्नेह रखता है. ज्यों २ जठराग्नि प्रज्वलित होती जाती है और अन्न खाने योग्य हो जाता है त्यों २ माता से प्रेम घटाता जाता है और होशियार हो जाने पर स्त्री और पुत्रादि के प्रेम पाश में फंस जाता है और उसका यहां तक परिणाम होता है कि वह माता का भी अपमान करने लगता है. माता को दासी और गुलाम समझने लगता है. और स्त्री को, देवी मानकर उसका सत्कार सन्मान व भक्ति और खुशामद करने लगता है. यही दशा धर्म रुपी माता की दृष्टि गोचर होती है. जिस धर्म रुपी माता ने ८४ लाख जीवा योनियों के कष्ट से इसकी रक्षा की इतनी संपति, वैभव,