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( ९ ), अंगुली काटकर ही घर को लौटेगा । यही दशा मनुष्यजीवन की है । मनुष्य जीवन धर्ममय व्यतीत करने के लिये है किंतु वैसा न करते मनुप्य धन रूपी घास काटने के लिये संसार रूपी जंगल में जाता है। इसलिये उसे धनरूपी घास तो प्राप्त नहीं होता है प्रत्त्युत वह अनंतपुण्यमयी संपत्ति का नाश कर बैठता है और अनंत जीवयोनियों में भोगने के लिये दुःखप्रद पाप की सामग्री एकत्रित कर लेता है। ____दो मित्र हैं । एक पांच स्वर्ण की मुहरें रोज कमाने की प्रतिज्ञा करता है और दूसरा पांच सामायिक रोज करने की । पाठक निःसंकोच विचार कर सकते हैं कि सामायिक करना अपने हाथ की बात है किन्तु धन कमाना अपने हाथ की बात नहीं है । इसका मतलब यह निकला कि धर्म स्ववस्तु है और धन परवस्तु है । धार्मिक क्रिया करना पैतकसंपत्ति का उपभोग करना है और धन कमाना आत्मघातक धंदा करना है।
शास्त्रकार ने १८ पाप बतलाए हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह इत्यादि । इनमें हिंसक, मृषावादी, चोर और व्यभिचारी पापी हैं । नित्य ऐसी प्रवृत्ति करने वाले अधिक पापी हैं। इसी तरह जो धनवान होकर उस धन का सदुपयोग न करते हुए विषय बिलास में जीवन व्यतीत करते हैं वे भी पाप उपार्जन करते हैं । तथा