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( २ ) समझता है उसका शतांश भी इसे मूल्यवान समझने वाला पाठक लाखों में एक भी मिलना मुश्किल है। ऐसी दशा में मनुष्य-जीवन के सदुपयोग की आशा कहां से की जाय ?
जयपुर के एक व्याख्यान में मैंने प्रश्न किया था कि किसी मुनि को जवाहरात की परीक्षा सीखना हो तो उसे क्या करना चाहिये ? उत्तर मिला कि उनको अपने महाव्रत, समिति, गुप्ति इत्यादि बातों का परित्याग कर जौहरी, उनकी पत्नी तथा उनके नौकरों की आज्ञा का पालन करना होगा, और दूकान में झाडू भी देना होगी। सारांश में जो आज करोड़पति जोहरियों का पूज्य बना हुआ है उस साधु को जवाहरात की परीक्षा सीखने के लिये अपने महान् पद को त्याग कर नीच गुलामी को अंगीकार करना होगा।
पत्थर के टुकड़ों की परीक्षा के लिये दस-बारह वर्ष तक ऐसी गुलामी करने पर कहीं कुछ ज्ञान प्राप्त हो सकता है । जब पत्थर के टुकड़ों की परीक्षा के लिये इतने वर्षों की मिहनत, इतना त्याग, इतना पुरुषार्थ और इतनी गुलामी की जरूरत है तो फिर भगवान् महावीर के तत्वरूपी जवाहरात की परीक्षा के लिये कितने श्रम की आवश्यकता होनी चाहिये ? · नरभव रूपी चिंतामाण रत्न की परीक्षा के लिये
न् महावीर को साढ़े बारह वर्ष तक घोर तपश्चयों