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तीसरा भाग।
गुणीजनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड आवे, बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके मन यह सुख पावे । होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे, गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥६॥ कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों वर्षों तक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आ जावे। , अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने यावे, तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ||७|| होकर सुख मे मग्न न फूले, दुख में कभी न घवरावे, पर्वत-नदी-श्मशान-भयानक अटवी से नहिं भय खावे । रहे अडोल-अकंप निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जावे, इष्टवियोग-अनिष्टयोगमे, सहनशीलता दिखलावे ||८|| सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कमी न घवरावे, वैर-पाप-अभिमान छोड जग, नित्य नये मंगल गावे । घर घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावें ॥९॥ ईति-भोति व्यापे नहिं जग में, वृष्टिसमय पर हुआ करे, धर्मनिष्ट होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे । रोग-मरोदुर्भिक्ष न फैने, प्रजा शान्ति से जिया करे, परम प्रहिंसा-धर्म जगत मे, फैन सर्व हित किया करे ॥१०॥ फैले प्रेम परसर जग में मोह दूर पर रहा करे, अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं, कोई मुख से कहा करे । बनकर सब 'युग-वोर हृदय से, देशोन्नति रत रहा करें, वस्तुस्वरूप विचार खुशीसे, सर दुख संकट सहा करें ॥११॥