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श्री आत्म-बोध |
व्याख्यान के प्रारम्भ की स्तुति
॥ १ ॥
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वीर हिमाचल से निकसी, गुरु गौतम के श्रुत कुण्ड ढरी है । मोह महाचल भेद चली, जगकी जड़ता सब दूर करी है ज्ञान पयोदधि माँथ रली, बहु भंग तरंगन से उछरी है ता सूची सारद गङ्गनदी, प्रणमी अंजली निज सीस धरी है ॥ २ ॥ ज्ञानसुं नीर भरी सलिला, सुरधेनु प्रमोद सुखीर निध्यानी । कर्म जो व्याधी हरन्त सुधा, अघमेल हरन्त शीवा कर मानी ॥ ३ ॥ जैन सिद्धान्त की ज्योति बढ़ी, सुरदेव स्वरूप महा सुखदानी | लोक त्रलोक प्रकाश भयो, मुनिराज बखानत है निज बानी ॥ ४ ॥ सोभित देव विषे मघवा, अरु वृन्द विषे शशी मंगलकारी । भूप समूह विषे वली चक्र, प्रति प्रगटे बल केशव भारी ॥ ५ ॥ नागीन में धरणीन्द्र बड़ो, अरु है असुरीन मे चवनेन्द्र अवतारी । ज्यूँ जिन शासन संघ विपे, मुनिराज दीये श्रुत ज्ञान भण्डारी ॥ ६ ॥ केसे कर कैतकी कणेर एक कहियो जाय, आक दूध माय दूध भन्तर घणेशे है । रिरी होत पीली पिण हॉस करे कंचन की, कहाँ काग वानी कहाँकोयल की टेरा है | कहाँ भानु तेज भयो आगियो विचारो कहाँ,
पूनमको उजवालो कहाँ अमावस अधेरो है ।
पक्ष छोड पारखी निहाल देख मिगाकर, जैन वैन और वैन अंतर घणेरो है ॥ वीतराग बानी साची मोक्ष की निशानी जानी,
महा सुकृत की खानी ज्ञानी आप मुख बखाणी है । इनको आराधळे तिरिया है अनन्त जीव, सोही निहाल जाण सरवा मन आणी है। सरवा है सार बार सरधासे खेवो पार, सरधा बिन जीव सुवार निश्चय कर मानी है वाणी तो वणोरी पण वीतराग तुलये नहि, इनके सिवाय और छोरा सी कहानी है
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