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श्री आत्म-बोध |
मेरी भावना
रहते हैं । करते हैं, हरते हैं ॥२॥
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( जीवन सुधार नित्य पाठ ) जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया, सब जीवो को मोक्ष मार्ग का, निस्प्रह हो उपदेश दिया । कुछ, वीर, जिन, हरि, हर ब्रह्मा; या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी मे लीन रहो ||१|| विपयो की आशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं, निज-पर के हित माधनमे जो, निशदिन तत्पर स्वार्थत्याग की कठिन तपस्या, विना खेद जो ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख समूह को रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे, उन ही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे । नहीं सताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नहिं कहा करूँ, पर वन वनिता पर न लुभाऊँ, संतोपामृत पिया करूँ ॥ ३॥ अहकार का भाव न रक्खूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरो की बढ़ती को, कभी न ईपी भाव धरूँ । रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूं, बने जहा तक इस जीवन मे औरों का उपकार करूं ||४|| मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे, दीन दु खी जीवों पर मेरे डर से करुणा स्रोत बहे | दुर्जन- कुरकुमार्गरती पर नोभ नहीं मुझको आवे, साम्यभाव स्क्यूँ मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ||५||
ग्रिया- वनिता" की 'ती' पड़े |