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श्रीआत्म-बोध ।
निर्जरा जानी ॥ २२ ॥ ज्यो वूटी सयोग तें, पारा मूर्छित होय । त्यो पुद्गल सो तुम मिले, आतम सकती खोय ॥ २३ ॥ मेल खटाइ मांजिये, पारा परगट रूप । शुक्ल ध्यान अभ्यास तें, दर्शन ज्ञान अनूप ॥ २४ ॥ कही उपदेश बनारसी, चेतन अव कछ चेतु, आप बुझावत आपको, उदय करन के हेतु ।। २५ ॥
___ इति श्री ज्ञानपञ्चोसी सम्पूर्णम् ।। पंच परमेष्टि की स्तुति तथा ध्यानादि
श्री द्रव्य संग्रह छंद
_चौपाई चार घातिया कर्म निवारी । ग्यान दरस सुख बल परकास ॥ परमौदारिक तनु गुणवंत । ध्याऊँ शुद्ध सदा अरहंत ॥१॥ करम काय नासै सब थोक । देखे जाने लोकालोक ॥ लोक शिखर थिर पुरुषाकार । ध्याऊँ सिद्ध सुखी अविकार ॥२॥ दरशन ग्यान प्रधान विचार । व्रत तप वीरज पंचाचार ॥ धरै धरावे और निपास । ध्याऊँ आचारज सुख रास ॥३॥ सम्यक् रत्न त्रय गुण लीन । सदा धरम उपदेश प्रवीन ॥ साधुनी मैं मुख करुनाधार । ध्याऊँ उपाध्याय हितकार ॥४॥ दर्शन ज्ञान सुगुण भडार । परम मुनिवर मुद्राधार ॥ साधे शिव मारग आचार । ध्याऊँ साधु सुगुण दातार ॥५॥ तन चेष्टा तजी आसन मांडी। मौनधारी चिंता सब छांडी ॥ थीर है मगन आप मे आप । यह उत्कृष्ट ध्यान निहपाप ।।६।। जब लौ मुगति चहैं मुनिराज । तब लौ नहीं पावे शिवराज ॥ सब चिंता तज एक स्वरूप । सोई निहचै ध्यान अनूप ॥७॥