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तीसरा भाग ।
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'वढे, पात्रहु भव जल पार || ९ || ज्यों अंकुश मानै नहीं, महा मत्तगजराज । त्यों मन तृष्णा में फिरै, गणे न काज अकाज ॥१०॥ ज्यों नर दाव उपाव कैं, गही आने गज साथि । त्यों या मन वश करन को, निर्मल ध्यान समाधि || ११ || ' तिमिर रोगसो नैन ज्यों, लखै और की और। त्यों तुम सशय में परे, मिथ्यामत को दौर || १२ || ज्यों औषध अजन किये, तिमिर रोग मिट जाय । त्यौं सद्गुरु उपदेश तें, संशय वेग विलाय || १३ || जैसे सब जादव जरे, द्वारावती की आग । त्यों माया में तुम परे, कहां जागे भाग || १४ || दीपायनसो ते वचे, जे तपसी निर्यथ । तज माया समता गहो, यही मुक्ति को पंथ ॥ १५ ॥ ज्यों कुधातु के फेट सो, घट बध कंचन कांति । पाप पुण्यकरी त्यों भये, मूढातम चहु भांति ॥ १६ ॥ कंचन निज गुण नहिं तजे, वान हीन के होत | घट घट अतर आतमा, सहज स्वभाव उद्योत ॥ १७ ॥ पन्ना पीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय । त्यों प्रगटे परमातमा, पुण्य पाप मल खोय ॥ १८ ॥ पर्व राहु के ग्रहण सों, सूर " सोम
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छवि छीन । सगति पाय कुसाधु की, सज्जन होय मलीन ||१९|| निवादिक चन्दन करै, मलियाचल की वास । दुर्जन तैं सज्जन भये, रह सुसाधु के पास || २० || जैसे 'ताल सदा भरे, जल आवे चहु ओर । तैसे आश्रव द्वारसों, कर्म बध को जोर ॥ २१ ॥ ज्यों जल आवत 'मूदिये, सूके सरवर पानी | तैसे सवर के किये, कर्म
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६- तिमिर = नाख में नधेरी माना । २-विलाय = नाश होवे । ३- पान = वर्ण । ४- सूर = सृग्ज | ५- सोम = चन्द्र । ६-छवी = प्रकाश । ७-ताल = तलाव । ८-मूं दीये = बन्ध करे । रोके ।