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पाय । विषय सुखन के कारणे, सर्वस चलो गँवाय ॥ २० ॥ ऐसी मति विभ्रम भई, विपयन लागत धाय । कै दिन के छिन के घरी, यह सुख थिर ठहराय ।। २१ ।। करमन सो कर युद्ध तू, करले ज्ञान कमान । तान स्वबल सो परन तू, मारो मनमथ नान ||२२|| तुमतो पद्म समान हो, सदा अलिप्त स्वभाव । लिप्त भयो गोरस ( इद्रि) विपे, ताको कौन उपाव || २१ || अपने रूप स्वरूप सों, जो जिय राखे प्रेम । सो निहचे शिव पद लहे, मनसा वाचा नेम || २४ || ध्यान धरो निज रूप को, ज्ञान माहि उर आन | तुम तो राजा जगत के, चेतहु विनती मान ॥ २५ ॥
अथ ज्ञानपच्चीसी (श्री बनारसीदासजी कृत ) ।
सुरनर तीर्थग योनि मे, नरक निगोद भवंत । महा मोह की नींद सो, सोये काल अनन्त ॥ १ ॥ जैसे ज्वर के जोरसो, भोजन --की रुचि जाय । तैसे कुकर्म के उदय, धर्म वचन न सुहाय ॥ २ ॥ लगै भूख ज्वर के गये, रुचि सो लेय आहार । अशुभ गये शुभ के जगे, जाने धर्म विचार ॥ ३ ॥ जैसे पवन झकोरतें, जल में उठे तरंग | त्यों मनसा चंचल भई परिग्रह के परसंग || ४ || जहा पवन नहीं संचरै, तहा न अल कलोल । त्यो सब परिग्रह त्याग लों, मनसा होय अडोल || ५ || ज्यो का विषधर डसै, रुचि सो नीम चत्राय । त्यो तुम ममता सो मढे, मगन विषय सुख पाय || ६ || नीम रस भावे नहीं, निर्विष तन जब होय । मोह घटे ममता मिटै, विषय न वांछे कोय ॥ ७ ॥ जो सछिद्र नौका चढ़े, डूबइ अंध
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देख | त्यो तुम भव जल में परे, बिन विवेक धर भेख ॥ ८ ॥ जहां अखंडित गुण लगे, खेवट शुद्ध विचार । आतम रुचि नौका