________________
तीसरा भाव।
२३
रहे उदास ॥४॥ श्राप पराये वश परे, आपा डाखो खोय । आप आप जाने नहीं आप प्रकट क्यो होय ||५|| दिनाँ दश के कारणे सब सुख डांखों खोय । विकल भयो संसार मे, ताहि मुक्ति क्यो होय॥ निज चन्दा की चांदनी, जिही घट मे परकाश। तिहि घट में उद्योत हो, होय तिमिर को नाश ||७|| जित देखत तित चांदनी, जब निज नैनन जोत । नैन मिचत पेखे नहीं, कौन चांदनी होत ॥८॥ जे तन सो दुख होत है, यहै अचभो मोहिं, ते तन सो ममता धरे, चेतन चेत न तोहि ॥ ९ ॥ जा तन सो तूं निज कहे, सो तन तो तुम नाहि । ज्ञान प्राण संयुक्त जो, सो तन तो तुम माहि ॥ १०॥ जाकी प्रीत प्रभाव सों, जीत न कबहुँ होय । ताकी महिमा जे धरे, दुरवुद्धि जिय सोय ॥ ११ ॥ अपनी नव निधि छोड़के, मागत घर घर भीख । जान बूझ कुए परे, ताहि कहो कहा सीख ।। १२ ।। मूढ मगन मिथ्यात्व मे, समुझे नाहि निठोल । कानी कोडी कारणे, खोवे रतन अमोल ।। १३ ।। कानी कोडी विषय सुख, नर भव रतन अमोल । पुख पुन्य हि कर चढ्यो, भेद न लहे निठोल ॥ १४ ।। चौरासी लख में फिरे, राग द्वेप परसंग । तिन सो प्रीति न कीजिये, यहै ज्ञान को अंग ॥१५।। चल चेतन तहा जाइये, जहा न राग विरोध । निज स्वभाव परकाशिये, कीजे आतमबोध ॥ १६ ।। तेरे बाग सुज्ञान है, निज गुण फूल विशाल । ताहि विलोकहु परम तुम, छाडि आल जजाल ।। १७ । जित देवेहु तित देखिये, पुद्गल ही सों प्रीत । पुदगल हारे हार अरु, पुदगल जीते जीत ॥ १८ ॥ जगत फिरत की जुग भये, सो कछु कियो विचार । चेतन अव किन चेतहु, नर भव लह अतिसार ॥ १९ ॥ दुर्लभ दस दृष्टान्त सो, सो नर भव तुम