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श्रीआत्म-बोध ।
राजा कहिये बड़ो, इन्द्रिन को सरदार । आठ पहर प्रेरत रहे. उपजे कई विकार ॥८॥ मन इन्द्रि संगति किये, जीव परे जग जोय । विषयन की इच्छा वड़े, कैसे शिवपुर होय ॥ ९ ॥ इन्द्रिन ते मन मारिये, जोरिये आतम मांहि । तोरिये नातो राग सों, फोरिये वलसो यांहि ॥ १०॥ इन्द्रिन नेह निवारिये, टारिये क्रोध कषाय। धारिये संपति शास्वती, तारिये त्रिभुवन राय ॥११॥ गुण अनन्त जामे लसे, केवल दर्शन आदि । केवल ज्ञान विराजतो, चेतन चिन्ह अनादि ॥ १२ ॥ थिरता काल अनादि लो, राजे जिहँ पद मांहि । सुख अनन्त स्वामी वहे, दूजो कोउ नाहिं ॥१३॥ शक्ति अनन्त विराजती, दोष न जानहि कोय । समकित गुण कर शोभतो, चेतन लखिये सोय ॥ १४ ॥ वधे घटे कबहु नहि, अविनाशी अविकार । भिन्न रहे पर द्रव्य सों, सोचे तन निरधार॥१५ पंच वर्ण मे जो नही, नहीं पच रस मांहि । आठ फरस ते भिन्न है गध दोउ कोउ नाहिं ।। १६ ॥ जानत जो गुण द्रव्य के, उपजन बिनसन काल । सो अविनाशी आत्मा, चिन्हु चिन्ह दयाल ॥ १७॥
परमात्म पद के दोहे सकल देव मे देव यह, सकल सिद्ध मे सिद्ध । सकल साधु में साधु यह, पेख निजात्म रिद्ध ॥ १॥ फिरे बहुत संसार में, फिर फिर थाके नाहि । फिरे जबहि निज रूप को, फिरे न चहु गति मांहि ॥ २ ॥ हरी खात हो बावरे, हरी तारि मति कौन । हरी भजो आपो तजो, हरी रीती सुख हौन ॥ ३॥ परमारथ परमे नह, परमारथ निज भ्यास । परमारथ परिचय विना, प्राणी