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तीसरा भाग।
२१ देव गुरु धर्म ग्रंथ न जाने, स्व-पर विवेक हृदे नहिं आने । क्यो होवे भव सागर तरना, ऐते० ॥१९।। पाचों इन्द्रि अति वटमारे, परम धर्मधन मूसन हारे,खांहि पियहि ऐतो दुख भरना ऐते०॥२० सिद्ध समान न जाने आपा, ताते तोहि लगत है पापा, खोल देख झट पटहि उधरना, ऐते०॥ २१ ।। श्री जिन वचन अमल रस वानी, पीवहि क्यों नहि मूढ़ अज्ञानी, जातै जन्म जरा मृत हरना,ऐते० ॥२२॥ जो चेते तो है यह दावो,नाहीं बैठे मगल गावो फिर यह वृक्ष नरभव न फरना। ऐते० ॥२३॥ भैया विनवहि वारंबारा, चेतन चेत भलो अवतारा, है दुलह शिव नारी वरना । दोहा-ज्ञानमयी दर्शनमयी, चारितमयी स्वभाव ।
सो परमातम ध्याइये, यहै सुमोक्ष उपाय ॥ २५ ॥
इन्द्रिय दमन
दोहा-इन्द्रिन की संगति किये, जीव परे जग माँ हि । जन्म मरण बहु दुख सहे, कबहु छूटे नाहि ॥१॥ भोंगे पस्यो रसनाक के, कमल मुदित भये रैन । केतकी काटन वॉषियो, कबहु न पायो
चैन ।।२।। कानन की सगति किये, मृग मार्यो वन माहि । अहि पको रस कान के, किमहू छुट्यो नाहिं ॥३॥ आँखनि रूप निहार के, दीप परत है धाय । देखहु प्रगट पतग की, खोवत अपदो काय ॥४॥ रसना वस मछ मारियो, दुर्जन करे विसवास । बाते जगत विगुचीयो, सहे नरक दुखवास ॥५॥ फरस हिते गज वश पखो, वंध्यां सांकल तान । भूख प्यास सब दुख सहे, किर्हि विधि कहहिं वखाण ||६|| पचेन्द्रिय की प्रीति सो, नीव सहे दुख पोर । काल अनन्त ही जग फिरे, कहुँ न पावे ठोर ॥७॥ मन