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श्री आत्म-वोध |
ऐते० ||३|| पृथ्वी अप ते अरु वाय, वनस्पति में वसै सुभाय । ऐसी गति में दुख वहु भरना ऐते० ||४|| केतो काल इहां तोहि बो, निकसी फेर विकल त्रय भयो । ताका दुख कछु जाव न वरना, ऐते० ||५|| पशु पक्षी की काया पाई, चेतन रहे वहां लपटाई | विना विवेक को क्यो तरना, ऐते० ॥ ६ ॥ इम तिरजंच मांही दुख सहे, सो दुख किनहु जाहि न कहे । पाप करम ते इह गति परना, ऐते० ॥७॥ फिरहु परके नरक के मांहि, सो दुःख कैसे वरनो जाहिं । क्षेत्र गंध तो नाक जु सरना० ऐते० ||८|| अनि समान भूमि जहं कहीं, कितहु शीत महावन रही। सूरी सेज छिनक नहीं टरना० ऐते ० | ९ || परम अधर्मि देव कुमारा, छेदन. भेदन करहिं अपारा । तिनके बसते नाहि उबरना० ऐते० ॥१०॥ रंचक सुख जहा जीव को नाहिं, वसत याहि गति नाहि अवाहि । देखत दुष्ट महाभय डरना० ऐते ० ||११|| पुण्य योग भयो सुर अवतारा, फिरत फिरत इह जगत मझारा, आवत काल देख थर हरना० ऐते० ||१२|| सुर मंदिर अरु सुख सयोगा, निश दिन सुख संपति के भोगा, छिन इक मांहि तहां ते टरना० ऐते० ||१३|| बहु जन्मांतर पुण्य कमाया, तब कहुँ लही मनुष परजाया, तामे लग्यो जरा गद मरना, ऐते० ||१४|| धन जोबन सब ही ठकुराइ, कर्म योग ते नौ निधि पाइ, सो स्वप्नान्तर कासा वरना, ऐते० ॥ १५ ॥ निश दिन विषय भोग लपटाना, समुझे नहि कौन गति जाना । हैं छिन काल आयु को चरना, ऐते० ||१६|| इन विषयन के तो दुख दीनो, तब हुँ तू तेही रसभीनो, नेक विवेक हृदे नहिं धरना, ऐते० ॥ १७ ॥ पर संगति के तो दुःख पावे, तबहु ताको लाज न आवे, नीर संग वासन ज्यो जरना, ऐते० ॥१८॥