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________________ १८ श्रीआत्म-वोध । अविवेकी नर पशु समान, मानव जस घट आतम ज्ञान । दिव्य दृष्टि धारी जिन देव, करता तास इन्द्रादिक सेव ॥१२॥ ब्राहण जे ते ब्रह्म पिछाणे, क्षत्रि कर्म रिपु वश आणे। वैश्य हानि वृद्धि जे लखे, शुद्र भक्ष अभक्ष जे भखे ॥१३॥ अथिर रूप जाणो संसार, थिर एक जिन धर्म हितकार । इन्द्रि सुख छिल्लर जल जानो, अमन अनिन्द्री अगाध बखानो ॥१४॥ इच्छा रोधन तप मनोहार, जय उत्तम जग मे नवकार । संजम आतम थिरता भाव, भव सागर तरवा को नाव ।।१५।। छतो शक्ति गोपवे ते चोर, शिव साधक ते साध किशोर । अति दुर्जय मन की गति जोय, अधिक कपट पापी मे होय ॥१६॥ नीच सोई पर द्रोह विचारे, ऊँच पुरुष पर विकथा निवारे। उत्तम कनक कीच सम जाणे, हरख शोक हृदये नहि आणे।।१७।। अति प्रचड अग्नि है क्रोध, दुरदम मान मातग गज जोध । विष वेली माया जग माही, लोभ समो साह्यर कोई नाहीं ॥१८॥ नीच संगति से डरिये भाई, मलिये सदा सतर्फे जाई । साधु संग गुण वृद्धि थाय, पापी की संगते पत जाय ।।१९।। चपला जेम चंचल नर आयु, खिरत पान जब लागे वायु । छिल्लर अंजली जल जेम छीजे, इण विध जाणिम मत कहा कीजे ॥२०॥ चपला तिम चंचल धन धान, अचल एक जग में प्रभु नाम। धर्म एक त्रिभुवन में सार, तन,धन, यौवन सकल असार ।॥२१॥ नरक द्वार विषय नित जाणो, ते थी राग हिये नवि आणणे । अन्तर लक्ष रहित ते अंध, जानत नहीं मोक्ष अरुबन्ध ॥२२॥ जे नविसुणत सिद्धान्त बखान, बधिर पुरुष जग मे ते जान।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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