________________
तीसरा भाग।
१७
प्रश्नोत्तर। देव श्री अरिहन्त निरागी, दयामल सुचि धर्म सोभागी । हित उपदेश गुरु सुसाधु, जेधारत गुण अगम अगाधु ॥१॥ ___ उदासीनता सुख जग माही, जन्म मरण सम दु ख कोई नाहीं।
आत्मवोध ज्ञान हितकार, प्रबल अज्ञान भ्रमण ससार ॥२॥ चित्त निरोध ते उत्तम ध्यान, ध्येय वीतरागी भगवान । ध्याता तास मुमुक्षु बखान, जे जिनमत तत्वारथ जान ॥३॥ लहि भव्यता म्होटो मान, केवल अभव्य त्रिभुवन अपमान । चेतन लक्षण कहिये जीव, रहित चेतन जान अजीव ||४|| पर उपकार पुण्य करी जाण, पर पीडा ते पाप बखाण ।
आश्रव कर्म आगमन धारे, संवर तास विरोध विचारे ||५|| निर्मल हस अंश जिहां होय, निर्जरा द्वादश विधि तप जोय । कर्म मल बंधन दुख रूप, वंध अभाव ते मोक्ष अनूप ॥६॥ पर परणति ममतादिक हेय, स्व पर भाव ज्ञान कर ज्ञेय । उपादेय आत्मगुण वृद, जाणो भविक महासुख कद ||७|| परम वोध मिथ्या हग रोध, मिथ्या हग दुख हेत अबोध ।
आत्म हित चिंता सुविवेक, तास विमुख जड़ता अविवेक ||८|| परभव साधक चतुर कहावे, मूरख जेते वन्ध बढ़ावे । त्यागी अचल राज पद पावे, जे लोभी ते रंक कहावे ॥९॥
उत्तम गुण रागी गुणवन्त, जे नर लहत भवोदधि अन्त । , जोगी जश ममता नही रती, मन इन्द्रिय जीते ते जती ॥१०॥ समता रस साह्यर सो सन्त, तजत मानते पुरुष महत । शूर वीर जे कंद्रप वारे, कायर काम आणा शिर धारे ॥११॥