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काव्य विलास
११ ईश्वर सोही आतमा, जाति एक है तंत। कर्म रहित ईश्वर भये, कर्म सहित जगजंत ॥१५॥ जो गुण आतम द्रव्य के, सो गुण आतममाहिं। जड़के जड़में जानिये, यामें तो भ्रम नाहिं ॥१६॥ दर्शन आदि अनंत गुण, जीव धरै तीन काल। वर्णादिक पुद्गल धरै, प्रकट दोनों की चाल ॥१७।। सत्यारथ पथ छोड़ के, लगे मृषा की ओर । ते मूरख संसार में, लहै न भव को छोर ॥१८॥ भैया ईश्वर जो लखे, सो जिय ईश्वर सोय । यों देख्यो सर्वज्ञने, यामें फेर न कोय ॥१६॥
कर्ता कता के दोहे कर्मन को कर्ता नहीं, धरता शुद्ध सुभाय । ता ईश्वर के चरन को, बंदू शीस नमाय ॥१॥ जो ईश्वर करता कहैं, भुक्ता कहिये कौन ? जो करता सो भोगता, यही न्यायको भौन ॥२॥ दोनों दोष से रहित है, ईश्वर ताको नाम । मन वच शीस नवाय के, करूं ताहि परिणाम॥३॥ कर्मन को कर्ता है वह, जिसको ज्ञान न होय । ईश्वर ज्ञान समूह है, किम कर्ता है सोय ॥४॥ ज्ञानवंत ज्ञानहिं करें, अज्ञानी भज्ञान ।