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काव्य विलास
तो देखोमुनिराज ज्यों, बिलसत शिवपुर राज॥२१॥ अरिजीतन को जोर है, मन जीतन को खाम ।
देख त्रिखंडी भूप को, पड़त नर्क के धाम ॥२२॥ __ मन जीते जो जगत में, वे सुख लहे अनन्त ।
यह तो बात प्रसिद्ध है, देख्यो श्री भगवंत ॥२३॥ देख बड़े आरंभ से, चक्रवर्ति जग मांहि । फेरत ही मन एक को, घले मुक्ति में जाहिं ॥२४॥ बाह्य परिग्रह रंच नहिं, मनमें धरे विकार । तांदल मछनिहालिए, पडे नरक निरधार ॥२०॥ भावन ही से बंध है, भावन ही से मुक्ति । जो जाने गति भाव की, सो जाने यह युक्ति ॥२६॥ परिग्रह करन मोक्ष को, इम भाख्यो भगवान । जिंह जिय मोह निवारियो, तिहिं पायो कल्यान ॥२७॥
ईश्वर निर्णय दोहे परमेश्वर जो परमगुरु, परमज्योति जगदीश । परमभाव उर आनके, वंदत हूं नमि शीश ॥१॥ ईश्वर ईश्वर सब कहै, ईश्वर लखे न कोय । ईश्वर को सोही लखे, जो समदृष्टी होय ॥२॥ ब्रह्मा विष्णु महेश जो, वे पाये नहिं पार । तो ईश्वर को और जन, क्यों पावे निरधार? ॥३॥