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काव्य विलास
इन्द्रिय से उमराव जिंह, विषय देश विचरंत । भैया उस मन भूप को, को जीते बिन संत ॥११॥ मन चंचल मन चपल अति, मन बहु कर्म कमाय। मन जीते विन आतमा, मुक्ति कहो किम थाय॥१२॥ मन सम योद्धा जगत में, और दूसरा नाहिं। ताहि पछाड़े सो सुभट, जीत लहे जग मांहि ॥१३॥ अन इन्द्रिन को भूप है, ताहि करे जो जेर । सो सुख पावे मुक्ति के, इसमें कछ न फेर ॥१४॥ जब मन मूद्यो ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश। तब इह आत्मा ब्रह्मको, कीने निज वरकाश ॥१॥ मनसे मूरख जगत में, दूजो कोन कहाय ? सुख समुद्र को छोड़के, विष के वन में जाय॥१६॥ विष भक्षण से दुःख बढे, जाने सब संसार । तदपि मन समझे नहीं, विषयन से अति प्यार॥१७॥ छहों खंड के भूप सब, जीत किये निज दास । जो मन एक न जीतियो, सहे नर्क दुख वास ॥१८॥ छोड़ घास की झपड़ी, नहीं जगत सों काज।। सुख अनंत बिलसंत है, मन जीते मुनिराज १६॥ अनेक सहस्त्र अपछरा, बत्तिस लक्ष विमान । मन जीते विन इन्द्र भी, सहे गर्भ दुःख आन ॥२०॥ छांड घरहि वनमें बसै, मन जीतन के काजः ।।