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काव्य विलास
उपजे आय मनुष्य में, धरै पंचेन्द्रिय स्वांग। मद आठों में मग्न बन, मातो खाई भांग ॥१॥ पुण्य योग भूपति भये, पाप योग भये रंक।। सुख दुख आपहि मान के, नाचन फिरे मिशंक॥१५॥ नारि नपुंसक नर भये, नाना स्वांग रमाय । चेतन से परिचय नहीं, नाच नाच खिर जाय । ऐसे काल अनंत से, चेतन नाचत तोहि । "अज' हूं आप संभारिये, सावधान किन होहि ॥१७॥ सावधान जो जिव भये, ते पहुँचे शिब लोक । नाच भाव सब त्याग के, विलसत सुख के थोक ॥१८॥ नाचत है जग जीव जो, नाना स्वांग रमंत । देखत है उस मृत्य को, सुख अनंत बिलसंत ॥१९॥ जो सुख होवे देखकर, नाचन में सुख नाहिं। नाचन में सब नःख हैं, सुखनिज देवन मांहि ॥२०॥ नाटक में सब नृत्य है, सार वस्तु कछु नांहि । देखो उसको कौन है ? नाचन हारे मांहि ॥२१॥ देखे उसको देखिये, जाने उसको जान। जो तुझको शिव चाहिये, तो उसको पहिचान॥२२॥ प्रकट होत परमात्मा, ज्ञान दृष्टि के देत । लोकालोक प्रमाण सब, क्षण इकमें लखलेत ॥२३॥
भैया नाटक कर्मते, नाचत सब संसार । ____ नाटक तज न्यारे भये, वे पहुँचे भवपार ॥२४॥