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काव्य विलास
नाचत है जिव स्वांगधर, कर कर नृत्य अपार ॥३॥
नाचत है जिव जगत में, नाना स्वांग बनाय ।
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देव नर्क तिरजंच अरु, मनुष्य गति में आय ॥४॥
स्वांग धरे जब देव को, मान्त है निज देव । वही स्वांग नाचत रहै, ये अज्ञान की टेव ॥५२॥
और न को औरहि कहै, आप कहै हम देव । ग्रह के स्वांग शरीर का, नाचत है स्वयमेव ॥ ६ ॥ भये नरक में नारकी, करने लगे पुकार । छेदन भेदन दुःख सहे, यही नाच निरधार ||७|| मान आपको नारकी, त्राहि त्राहि नित होत । यह तो स्वांग निर्वाह है, भूल करो मत कोय ||८|| नित अध गति निगोद है, तहां बसत जो हंस । वे सब स्वांग हि खेल के, विचित्र धर्मो यह वंश ॥ ॥ उधर उछर के गिर पड़े, वे आवे इस ठौर । मिथ्यादृष्ठि स्वभाव धर, यही स्वांग शिरमौर ॥ १० ॥ कबहू पृथिवी काय में, कबहू अग्नि स्वरूप | कबह पानी पवन में, नाचत स्वांग अनूप ॥११॥ वनस्पति के भेद बहू, श्वास अठारह वार ।
१ तामें नाच्यो जीव यह, धर धर जन्म अपार ॥१२॥ विकलत्रय के स्वांग में, नाचे चेतन राय । | उसी रूप परिणम गये, वरने कैसे जाय ? ॥ १३ ॥