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काव्य विनाम लल्लोपत्तो के किये, ये मिटने के नाहिं । ध्यान अग्नि परकाश के, होम देऊतिहि मांहिं ॥३०॥ ज्यो दारू के गंजको, नर नहिं सके उठाय।। तनक आग मंयोग से, क्षण इक में उड़ जाय॥३१॥ देह सहित परमातमा, यह अचरज की बात। रागद्वेष के त्याग ते, कर्मशक्ति जर जात ||३२|| परमात्मा के भेद दय, रूपी अरूपी मान । अनंत सुखमें एक से, कहने के दो स्थान ॥३॥ भैया वह परमातमा, वैसा है तुम माहिं। अपनी शक्ति सम्हाल के, लखो वेग हीताहिं॥३४॥ रागद्वेष को त्याग के, धर परमातम ध्यान । ज्यौं पावे सुख संपदा, 'भैया' इम कल्यान ॥३५॥ संवत विक्रम भूप को, सत्रह से पंचास। मार्गशीर्ष रचना करी, प्रथम पक्ष दुति जास ॥३६॥
कर्म नाटक के दोहे कर्म नाट नृत्य तोड़ के, भये जगत जिन देव; नाम निरंजन पद लह्यो, करूँ त्रिविधि तिहिं सेव॥१॥ कर्मन के नाटक नटत, जीव जगत के मांहि । उनके कुछ लक्षण कहूँ, जिन आगम की छाहिं ॥२॥ तीन लोक नाटक भवन, मोह नचावन हार ।