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काव्य विलास
राग द्वेष को त्याग दे, भैया सुगम इलाज ॥१६॥ परमातम पद को धनी, रंक भयो विललाय । रागद्वेष की प्रीति से, जनम अकारथ जाय ॥२०॥ राग द्वेष की प्रीति तुम, भूलि करो जिय रंच । परमातम पद ढांक के, तुमहिं किये तिरजंच ॥२१॥ जप तप संयम सब भलो. राग हुष जो नाहिं।। राग द्वेष के जागते, ये सब सोये जाहिं ॥२२॥ रागद्वेष के नाशते, परमातम परकाश । रागद्वेष के जागते, परमातम पद नाश ॥२३॥
जो परमातम पद चहै, तो तू राग निवार । ( देख सयोगी स्वामि को, अपने हिये विचोर ॥२४॥
लाख बात की बात यह, तुझको दिनी बताय। जो परमातम पद चहै, राग द्वेष तज भाय ॥२॥ रागद्वेष के त्याग बिन, परमातम पद नाहिं। कोटि-कोटि जप तप करे, सबहि अकारथ जाहि॥२६॥ दोष है यह आत्मको, रागद्वेष का संग । जैसे पास मजीठ के, वस्त्र और ही रंग ॥२७॥ वैसे आतम द्रव्य को, रागद्वेष के पास । कर्मरंग लागत रहे, कैसे लहे प्रकाश ॥२८॥
इन कर्मों का जीतना, कठिन बात है मीत । । जड़ खोदे विन नहिं मिटे, दुष्ट जाति विपरीत।२६॥