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काव्य विलास
जो परमात्मा सिद्धमें, सो ही यह तन माहिं । मोह मैल दृग लग रहा, जिससे सूझे नाहिं ॥६॥ मोह मैल रागादिका, जा क्षण कीजे नाश । ता क्षण यह परमातमा, आपहि लहे प्रकाश ||१०|| आतम सो परमातमा, परमातम सो सिद्ध । बीचकी दुविधा मिट गई, प्रकट हुई मिज रिद्ध ॥११॥ मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आत्माराम । मैं हो ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम ॥ १२ ॥ मैं अनंत सुख को धनी, सुखमय मुझनसभाव । - अविनाशी आनंदमय, सो हूँ त्रिभुवन राय ॥१३॥ शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान । गुण अनंत से युक्त यह, चिदानंद भगवान ||१४|| जैसो सिद्ध क्षेत्र बसै, वेसो यह तनमाहिं । निश्चय दृष्टि निहारते, फेर रंच कुछ नाहिं ॥ १५ ॥ कर्मन के संयोग से, भये तीन प्रकार । एक आतमाद्रव्य को, कर्म नचावन हार ||१६|| कर्म संघाती आदि के, जोर न कछु बसाय | पाई कला विवेक की, रागद्वेष बिन जाय ॥ १५७॥ कर्मो की जड़ राग है, राग जरे जड़ जाय । प्रकट होय परमातमा, भैया सुगम उपाय ॥ १८ ॥ काहे को भटकत फिरे, सिद्ध होने के काज ।
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