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काव्य विलास श्री परमात्म छत्तीसी
- दाह परम देव परमातमा, परम ज्योति जगदीस । परम भाव उर आन के, प्रणमत हूं नमिशीस ॥१॥ एक ज्यों चेतन द्रव्य है, जिनके तीन प्रकार । बहिरातम अन्तर तथा, परमातम पद सार ॥२॥ बहिरातम उसको कहे, लखें न आत्म स्वरूप। मग्न रहे परद्रव्य में. मिथ्यावंत अनुप ॥३॥ "अंतर-आतम जीव सो, सम्यग्दृष्टी होय । चौथे अरु पुनि बारवें, गुणथानक लो सोय ॥४॥ परमातम पद ब्रह्मको, प्रकट्यो शुद्ध स्वभाव। लोकोलोक प्रमान सब, झलकै जिनमें आय ॥४॥ बहिरातमा स्वभाव तज, अंतरातमा होय। परमातम पद भजत है, परमातम है सोय ॥६॥ परमातम सो आतमा, और न दूजो कोम। परमातम को ध्यावते, यह परमातम होय ॥७॥ परमातम यह ब्रह्म है, परम ज्योति जगदीश । परसे भिन्न विलोकिये,ज्योति अलख सोइ ईश॥८॥ __ श्री ब्रह्मविलास में से साभार उद्त ।