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________________ दूसरा भाग अमृत-वचन जहां जरूरत हो वहीं टपकते हैं । अनमोल मोता गिरते हैं। कभी किसी को प्रहार मालूम नही पड़ता। ' सत्य, प्रिय रोचक और पाचक । विवेक पूर्वक विचार के स्व पर हितकारी वचन जैनी उच्चारणकरे। गुरु-वाणी गाय ओगालती है। फेन के झाग से दूध बनाती है। बच्चे से बूढे तक को पिलाती है। मा के दुग्ध पान के समान पथ्य बनता है। धीरे २ रूपान्तर होकर दही और घी का रूप बने । खुद पुष्ट और संसार को पुष्ट बनावे । जैन की तलवार दुधारी। जीतना जाने, साथ मे हारने की भी युक्ति जाने । मारना जाने, साथ में मार खाने की कला जाने । जीतने से भी अधिक तीक्ष्ण बुद्धि जीते जाने मे काम में लावे। जैन तलवार जैसा तेज। साथ ही कमल जैसा नरम । गिरिरान जैसा बडा। साथ ही अणु जैसा सूक्ष्म । वज जैसा कठिन ।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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