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________________ -- २ श्रीश्रात्म-बोध याचक का उपकार माने । आपका खदा का ऋणी । वायु के वेग को हॅफाने वाले वेगयुक्त पाँवो से कृपालु फिर ऋण से मुक्त करने के लिए वेग से पधारिए । + + + + शिर पर सत्य का मुकुट । ऊपर शील की कलंगी । ललाट पर पुरुषार्थ का सिन्दूर | यह सब धर्म के लिए अर्पित है । सब का वह मालिक है । खुद उसका सेवक है । पग । स्वार्थ पर चलते दुख पावे, पसीजे । परमार्थ पर चलते रांझे । स्वार्थ मे अपंग परमार्थ मे महावीर । पुणिया श्रावक. बाप दादो की सम्पत्ति वह तो समाज की मुझे तो केवल बारह श्राने चाहिए । उसके लिए भी फिर समाज का ऋणी हूँ । प्रभो, उस ऋण से मुक्त कैसे होऊँ ?
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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