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________________ राजपूताने के जैत-वीर लिए भारतीय श्रान के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी किन्तु देश का दुर्भाग्य कि वह इसे स्वतंत्र न कर सके । हो भी कैसे ? जब कि राजपूत-कुलंगार शक्तसिंह (राणा प्रताप के भाई) और आमेराधिपति मानसिंह जैसे शत्रु का पक्ष लेकर अपने देशवासियों से लड़ रहे थे। इसी संसार-प्रसिद्ध युद्ध में वीर ताराचंद भी राणा प्रताप के साथ था और प्राणों के. तुच्छ मोह को कहाँ तुम्हारे आँगन में खेला था वह माई का लाल । वह माईका लाल, जिसे पा करके तुम हो गई निहाल ।। वह माई का लाल, जिसे दुनिया कहती है वीर प्रताप । ' कहाँ तुम्हारे आँगन में; उसके पवित्र चरणों की छाप । उसके पद-रज की कीमत क्या हो सकता है यह जीवन । स्वीकृत है वरदान मिले, लो चढ़ारहा अपना कण ।। तुमने स्वतंत्रता के स्वर में, गाया प्रथम-प्रथम रण-गान । · दौड़ पड़े रजपूत वाँकुरे, सुन-सुन कर आतुर आह्वान II इल्दी घाटी; मचा तुम्हारे आँगन में भीषण संपाम ।। रजमें लीन होगये, पल में अराणित राजमुकुट अभिराम ३. युग-युग बीत गये,तब तुमने खेला,था अद्भुत रणरंग। एक बार फिर भरो, हमारे हृदयों में, माँ वही उमंग ॥; गाओ, माँ, फिर एक बार तुम, वे मरने के मीठे गान। हम मतवाले हों स्वदेशके चरणों में हँस-हँस बलिदान... .. राजपूताने का इ० ख०-तीव:पृ-७६३ ।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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