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________________ मेवाड़ के वीर वंश सहित मेरा संहार कर डालेगा। मुझ में इतना सामध्ये नहीं कि उसका सामना करूँ।" इसके उपरान्त पन्ना देवल को छोड़े कर डूंगरपुर' नामक स्थान में गईं और वहाँ के रावल ऐशकर्ण (यशकण) के पास राजकुमार को रखना चाहा, परन्तु उसने भी भयके मारे राजकुमार को नहीं रक्खा । तदुपरान्त विश्वासी और हितकारी भीलों के द्वारा रक्षित हों भारावली के दुर्गम पहाड़ और ईडर के कूट मार्गों को लाँघ कर, कुमार को साथ लिये हुये पन्ना कुँभलमेरु दुर्ग में पहुँची। यहाँ पर पन्ना की बुद्धिमानी से काम हो गया। देंपरा गोत्र कुल में उत्पन्न हुआ पाशांशाह देपरा नामक एक जैन उस समय कुंभलमेर में किलेदार था, पन्ना में उससे मिलना चाहा; आशाशाहने प्रार्थना स्वीकार करके विश्रामगृह में पन्ना को बुलाया। वहाँ पहुँचते ही धात्री नें वालक उदयसिंह को आशाशाह की गोद में विठोकर कहा- 'अपने राजा के प्राणं बचाइये परन्तु आशाशाह ने अप्रसन्न और भीत होकर कुमार को गोद से उतारना चाहा, आशा की माता भी वहीं पर थी, पुत्र की ऐसी कायरता देखकर उसको फटकारते हुए उपदेशं पूर्ण शब्दों में चोली "आशा! क्या तूं मेरा पुत्र नहीं हैं ? क्या मैंने तुमे व्यर्थ में ' पालपोस कर इतना बड़ा किया हैं ? धिकार है तेरे जीवन को! क्या ही अच्छा होता जो तू मेरे उर में जन्म ही न लेता, तेरें भार' से पृथ्वी बोगों मरती है । जो मनुष्य विपत्ति में किसी के काम नहीं टाइ राजस्थानं द्वि० रवं० अ० ९ पृ० २४५-४६ ।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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