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________________ ७६. राजपूताने के जैन चीर पन्ना धायःविस्मित हुई। वह डर से उठना ही चाहती थी कि इतने में ही वारी (नाई) राजकुमार की जूठन आदि उठाने को वहाँ आया और भय विह्वल भाव से कहने लगा "बहुत बुरा हुआ सत्यानाश होगयां, वनवीर ने राणा विक्रमार्जित को मार डाला।" धाई का हृदय काँप-गया, वह समझ गई कि निष्ठुर-हृदय चनवीर केवल विक्रमाजित को ही मारकर चुप न होगा, वरन् उदयसिंह के मारने को भी आवेगा। उसने तत्काल बालक उदयसिंह को जिसकी अवस्था इस समय १५ वर्षे की थी; किसी युक्ति से वाहर निकाल दिया और उसके पलंग पर उसी अवस्था के अपने पुत्र को सुला दिया। इतने में ही रक्त-लोलुपी पिशाच-हृदय वनवीर आ पहुँचा और बालक उदयसिंह को खोजने लगा। तब पन्ना धाय ने इस रक्त लोलुप को अपने पुत्र की ओर संकेत कर दिया, उस चाण्डाल ने उसी को राजकुमार समम उसके कोमल हृदय में खंजर भोंक दिया । बालक सदैव को सो गया, पन्ना धाय ने अपने स्वामी के हितार्थ अपने बालक का बलिदान करके उफ ! तक न की । अपने पुत्र के मारे जाने पर पन्ना धाय महलों से निकल कर उदयसिंह के पास जा पहुँची ! आगे टॉड् साहब लिखते हैं कि कुमार को साथ लेकर पन्ना धाय ने वीरवाघजी के पुत्र सिंहराव के पास जाकर रहने की प्रार्थना की, वनवीर के भय से उसने राजकुमार की रक्षा करना स्वीकार नहीं किया. और . अत्यन्त शोकयुक्त होकर वोला--" मैं तो बहुतेरा चाहता हूँ कि राजकुमार की रक्षा करूँ परन्तु बनवीर इस बात को जान कर
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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