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________________ मेवाड़ के बीर इस गये युजरे जमाने में भी जब कि जैनियों का कोई विशेष प्रभाव नहीं है, महाराणा फतहसिंह (प्रताप के सुयोग्य वंशधर जिनका दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया है) ने श्रीकेशरिया के मंदिर में करीब ढाई लाख की भेट दी थी, उसी समयका श्री ऋषभनाथ को नमस्कार करते हुये युवराज भूपालसिंह (वर्तमान महाराणा) सहित चित्र भी मिलता है प्रसिद्ध वक्ता मुनि चौथमल.के उपदेश से अपने यहाँ कुछ पशुबध पर प्रतिबन्ध भी लगाया था। लिखने का तात्पर्य केवल इतना है कि शैवधर्मी की इस वंश में मान्यता होते हुये भी जैन धर्म को भी इस राज्यघराने में काफी आदर मिला है। यही कारण है कि उक्त राज्य में प्रायः जैनधर्मी ही मुख्यता से मंत्री और कोषाध्यक्ष रहे हैं, जैन यतियों ने प्रशस्त्रियाँ लिखी हैं और कितने ही इस घराने की ओर से जैन मन्दिर निर्माण हुये हैं। . जो प्रकटरूप से जैनधर्मी हुये हैं यहाँ उन्हीं का उल्लेख किया जायगा। राणी जयतल्लदेवी महाराणा तेजसिंह (वि०सं०१३२२ ई० सन् १२६५) की पटरानी और वीरकेसरी समरसिंहकी माता थी। इसकी जैनधर्म .पर पूर्ण श्रद्धा थी। इसने अनेक जैन मन्दिर बनवाये। श्री० श्रोमाजी लिखते हैं:- "तेजसिंह की राणी जयतलदेवीने जो समरसिंह की माता थी, चित्तौड़ पर श्याम पाश का मन्दिर बनवाया था।" "आँचलगच्छ की पट्टावलि से पाया . जाता है कि उक्त गच्छ के प्राचार्य अमितसिंह सूरी के उपदेश से है राजपूताने का इ० पृ० ४७३ ।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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