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________________ [ ३४८ ] कर रहे हैं, इसके लिये समाज को उनका बहुत कृतज्ञ होना • चाहिये। श्री०ए.एन. उपाध्याय एम.ए.प्रो राजाराम कालेजकोल्हापुर: "श्री गोयलीयजी. धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने अपनी प्रवाह-युक्त.भाषा में.यह पुस्तक लिखकर इक. सार्वजनिक आवश्यकता को पूरा कर दिया है । इस पुस्तक को पढ़ाकर मुझे । निश्चय है कि जैन लोग जो अपने इतिहासकी ओर से उदासीन प्रसिद्ध हैं, अपने अतीत को अपने सामने जगा हुआ देखेंगे। बा० बूलचन्द एम. ए. प्रो० हिन्दू कालेज देहली:__"पुस्तक को भली प्रकार देखने के बाद मैं यह कहने को तैयार हूँ कि पुस्तक एक ऐतिहासिक ग्रन्थ, और प्रचार का साधनं दोनों रूप में ही उपयोगी होगी। बाल त्रिलोकचन्द प्रोफेसर हिन्दू यूनिवर्सटी बनारस:-- ___ "इस: पुस्तक से जैनपाठशालाओं में पाठ्यक्रमोपयोगी ऐतिहासिक पुरतकों का प्रभाव दूर होगा, तथा विचारशील निष्पक्ष जनता पर भी इससे जैनधर्म के प्राचीनत्त्वकी छाप पड़ेगी। पुस्तक की भाषा-उत्तम है शैली भी समयोपगों है । गोयलीयजी का परिश्रम अत्यन्त प्रशंसनीय है ।आशा है वे इस दिशा में अपनी प्रगति अविछिन्न रखकर भविष्य में विशेष रूपसे समाज को लाभान्वित करेंगे। . . . १ बा०. पूर्णचन्दु-नाहर, एमाए एल एल बी कलकत्ताः-.. "गोयलीयजी की लेखनकलाऐसी चित्ताकर्षका है कि पाठक:
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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