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________________ ३४० राजपूताने के नैन-चीर .. रोति भी जैनियों के प्रभुत्व की परिचायक है। ..... : राजाओं द्वारा जैनाचार्यों का सन्मान, जीव-हिंसा-निषेध : * इस विज्ञप्ति की नाल मेहता बलवन्तसिंहजी की कृपा से प्राप्त हुई है, जो ज्यों की त्यों उधृत की जाती है : स्वस्ति श्री एकलिंगजी परसादातु महाराजाधिराज महाराणाजी श्री कुंभाजी । आदेसातु मैदपाट रा उमराव यावोदार कामदार समस्त महाजन.पंचाकस्यअनं. आपणे अठे श्री पूज तपागछ का तो देवेन्द्रसूरिजी का पंथ का तया पुनम्या गच्छ : का हैमाचारजनी को परमोद है। घरम शान बतायो सो अठे अणां को. पंथ को होवेगा जणीने मानागा पूजांगा । परयम (प्रथम) तो आगे सु ही आपण गढ़ कोट . में नींव दे जद पहीला श्री रिपमदेवजीरा देवरा की नाँव देवाड़े है पूजा करे है अषे यज ही मानागा । सिसोदा पग को होगा ने सरेपान ( सुरापान ) पीवेगा.. नहीं और धरम मुरजाद में जीव राक्षणो या मुरजादा लोयेगा जणी ने म्हासत्रा ( महासतियों) की आण है और फैल करेगा जणी ने तलाक है सं० १४७१ काती सुद ५ इस सम्बन्ध की भी मुझे दो विज्ञप्ति मेहता बलवन्तसिंहजी की कृपा से प्राप्त हुई हैं, एक गुजराती में (जो जैनप्रन्यगाइड में प्रकाशित हुई है) और दूसरी . मेवाड़ी भाषा में। यहां गुजराती विशक्ति का हिन्दी अनुवाद दिया जाता है और मेवाड़ी भाषा का रसास्वादन कराने के लिये दूसरी विज्ञप्ति ज्यों की त्यों दे दी गई है। -उदयपुर के महाराणा जगतसिंहजी ने आचार्य विजयदेवसूरि के उपदेश से प्रतिवर्ष पौष सुदी,१० को वरकाणा (गोड़वाड़ा तीर्थ पर होने वाले मेले में आगन्तुक यात्रियों पर से टेक्स लेना रोक दिया था और सदैव के लिये.. इस आशा को एक शिला पर सुदवाकर मन्दिर के दरवाजे के आगे लगवा दिया था, जो कि अभी तक मौजूद है। राणा जगतसिंह के प्रधान शाला कल्याणसिंह के
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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