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________________ | ३२६ राजपूताने के जैन वीर इसके अनन्तर उन्होंने अपना धन भी उसी में डालकर उसे छिपा दिया और वहाँ से चले आए तथा विचारने लगे कि इतने ' द्रव्य का क्या किया जाय ? उनको चिन्तित देखकर अनुपमदेवी ने उनसे इसका कारण पूछा। इस पर एकान्त में उससे उन्होंने सारा वृतान्त कहा । यह सुन कर उसने उत्तर दिया कि, इस तरह धन को छिपाना उचित नहीं है । इसको इस तरह से छिपाना चाहिये, जिससे प्रत्येक पुरुष इसे देखकर भी ले जा न सके । अर्थात् इस द्रव्य से मन्दिर आदि बनवा देने चाहियें । इस वात को उन्होंने भी पसंद कर लिया । तथा वहाँ से द्रव्य लाकर मन्दिर श्रादिक बनवाए । आगे चलकर उसी पुस्तक में लिखा है कि, प्रथम धौलका नामक ग्राम में रहनेवाले लूणिग, मालदेव, वस्तुपाल और तेजपाल बहुत निर्धन थे। अपनी निर्धनता के कारण मरते समय अपने कुटुंब से द्रव्यादिक दान करने की प्रतिज्ञा न करवाकर लूगि ने केवल तीन लाख प्रणाम् ( नवकार) करने की प्रतिज्ञा करवाई:( अर्थात् तीन लाख नवकारों के स्मरण करने से जो पुण्य होता है वह मांगा ) अपने भाई की ऐसी अवस्था देखकर वस्तुपाल ने और भी कुछ इच्छा प्रकट करने की प्रार्थना की । यह सुन कर लूगिंग ने कहा कि, आबू के विमलवसही नाम के मन्दिर 4 में देवकुलिका ( देवालय ) बनवाने की मेरी इच्छा थी; सो यदि हो सके तो इसे पूरी करना । जब वस्तुपाल और तेजपाल को द्रव्य लाभ हुआ, तब उन्होंने
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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