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________________ वक्तव्य २३ बल्कि उन्हें भी आत्म-रक्षा करना आता था । वह भी धर्म और जाति की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये प्रारणों का तुच्छ मोह छोड़ कर जूझ मरते थे । . जो बन्धु मेरे स्वतंत्र और धार्मिक विचारों से परिचित हैं, संभव है वें मेरी इस "वीर- चरितावलि" में जैन शब्द लगा हुआ देख कर चौके और कहें कि "यह मंजुहवी दीवानंगी कैसी ? " ऐसे महानुभावों से निवेदन है कि जैनी भी संसार के एक अंग हैं, उनका अंग भी यहीं की मिट्टी-पानी से बना है । इनके पुरखाओं ने भी अनेक लोक-हित कार्य किये हैं। पर, दुर्भाग्य से वर्तमान जैन अपने स्वरूप से परिचित नहीं; तभी वह कर्तव्य विमुख हो बैठे हैं। उनका भी इस समय कुछ कर्तव्य हैं, वह भी देश के एक अग हैं । कोई शरीर कितना ही वलशाली क्यों न हो, जयंतक उसका एक भी अंग दूषित रहेगा तब तक वह पूर्ण रूपेण सुखी नहीं बन सकतां । इसी बात को लक्ष करके यह सब लिखा गया है। पर जहाँ तक मैं समझता हूँ मैंने इन निबन्धों में मज़हबी दीवानगी को फटकने तक नहीं दिया है। जैन और जैनेतरं दोनों ही इसका कसा उपयोग कर सकते हैं। बकौल "इक़बाल" साहब' के मैंने इस बात का पूरा ध्यान रखा है : मेरी ज़बाने कलम से किसी का दिल न दुखे । बौद्धों की सत्ता भारत से उठ गई है, बौद्ध भारत में नहीं होने के बराबर हैं, फिर भी उनके सम्बन्ध में थियेटरों, सिनेमाओं समाचार-पत्रों और पुस्तकों द्वारा काकी प्रकाश पड़ता है; किन्तु
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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