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________________ २२ राजपूताने के जैन धीर .. -हमारा धर्म शेर वनकर दूसरों को हड़पाजाने की आज्ञा नहीं देता, परन्तु वह भेड़-वने रहने की शिक्षा का भी विरोधी है। शेर और भेड़:का कभी मेल हो ही नहीं सकता। भेड़ कितनी ही दया समानाधिकार, विश्वप्रेम आदि का रोना रोये, उसका जीवन सुरक्षित रह नहीं सकता। भेड़ जब तक भेड़ बनी रहेगी उसे खाने के लिये संसार में शेर पैदा होते ही रहेंगे । अतः दूसरों को हड़प.जाने के लिये नहीं, अपितु अपनी आत्म-रक्षा के लिये सभी को सजग रहना चाहिये। . . . . . . . . जैनियों पर उनके अहिंसा प्रेमी होने के कारण, अनेक महा परुषों:(१) ने कायरता का दोष लगाया है और अब वह (जैनी) कायर कहलाते कहलाते वास्तव में कायर भी हो गये हैं। उसी कायरता को हटाने के लिये मैंने "जैन वीर-चरितालि" के संकलन करने का प्रयत्न किया है। ताकि जैन समझ सकें कि हमारे पुरखाः चुपचाप: भेड़ों की तरह बध स्थल में नहीं चले जाते थे। ।। ...दूसरों के द्वारा अपनी निन्दा निरन्तर सुनते रहने, से-जातीय इतिहास में अनेक बीभत्स घटनाएँ उपस्थित होती देखी गई हैं । 'महाभारत की कथा में वर्णित है कि, कर्ण को बलहीन करने के लिये उसके सारथी पाण्डव-हितैषी, मद्-नरेश शल्य ने उसकी बहुत निन्दा की थी। दूसरों के मुँह से रात-दिन अपनी निन्दा सुनते रहने से साधारणत: सब.को आत्मग्लानि उपस्थित होती है, लोगों के मन में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है कि हम अकर्मण्य और हीनशक्ति हैं। ऐसी मान्ति बहुत दिनों तक स्थायी रहने से उन लोगों की बुद्धि नष्ट होने और चरित-बल घटने लगता है। इसी से अपनी जाति की निन्दा सुनना.. पाप अर्थात अवनति जंचक कहा जाता है।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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