SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८, राजपूताने के जैन वीर उन्होंने इसके खिलाफ पर यन्त्र रचना शुरू किया, इसके लिये उन्हें ( अच्छा मौका भी हाथ लग गया। नवाब मीरखों ने (जो उस: समय महाराज मानसिंह का मुँह चढ़ा हुआ था. और जो अपने मायाचार पूर्ण व्यवहारों से एक अत्यन्त शक्तिशाली था ) मुँड़वा, कुचेरा आदि अपने जागीर के गाँवों के अलावा मेहता और नागौर : पर भी अधिकार करने का विचार किया था। यह बात इन्द्रराज, सिंघवी को दुरी लगी । उसने इस पर बड़ी आपत्ति प्रकट की ।। बस इस अवसर से लाभ उठाकर इन्द्रराज सिंघवी के शत्रुओं नेः नवाब अमीरों को भड़का दिया । वि० सं० १८७३ की चैत्र सुदी ८ को नवाव ने अपनी फौज के कुछ सरों को किले पर भेजा । .. उन्होंने वहाँ पहुँच कर अपनी चढ़ी हुई तनरवाह माँगी । देतनः का तो बहाना था, दस बात ही बात में भगता होगा और गान सरदारों ने हमला बोल कर इन्द्रराज सिंघवी का प्रारंगनाश. कर दिया । महाराज मानसिंह को इस बात से बकापात का. सा. दुःख हुआ, वे विहल हो गये, उनके हृदय में घोर विषाद छा गया और संसार से उन्हें विरक्ति सी हो गई। उन्होंने राज्य करना, 1 छोड़ दिया और एकान्त वास करने लगे । इन्द्रराज के इस बलिदान को सुन कर महाराज मानसिंह ने जो कवित्त कहा था, वह.. इस प्रकार है पौड़ियां किन पोशाकरूँ केही जागां जोय | ठौर कंठे हुये जीवतां होड़ न मरना होय ।। १ [ २८ जनवरी सन् २३] . . .
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy