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________________ जोधपुर राजवंश के जैन वीर २११ १४. मेहता संग्रामसिंहजी : ( नं० १२ करमसीजी के पुत्र) इन्होंने मारवाड़ाधीश अजीत - सिंहजी के राज्यकाल सं १७८२ में, मारोठ, परवंतसर आदि सात परगनों की हुकूमत की । आग में कूद कर प्राण दे दूंगी किन्तु कायर-पत्नि न कहलाऊँगी । जब कि मेरे पूर्वज, शरीर में रक्त की एक वृन्द रहने तक, शत्रुओं का मान मर्दन करते रहे हैं। तब मेरा पति शत्रु के भय से भाग कर वे और मैं उसे छुपा लूं ? वीर-दुहिता होकर कायर-पत्नी कहलाऊँ ? लोग क्या कहेंगे ? सहेलियाँ ताना मारेंगी और पिता जी तो मेरा मुँह देखना भी पाप समझेंगे । श्रोह ! हृदय में कैसी २ उमंगें थीं। विजयी होकर श्रायेंगे, आरता उतारूंगी, उनकी चरणरज लेकर सुहाग की चूनरी में बाँधूगी, तलवार का रक्त लेकर मँहदी रचाऊँगी, उनके जख्मों को अपने हाथ से धोऊँगी, उनके शत्रु संहार-रण-कौशल को सुनकर मैं आपे में न रहूँगी; मारे गर्व के मेरी छाती फूल उठेगी । दोनों मिलकर मातृ-भूमि की वन्दना करेंगे। किन्तु यह सव स्वप्न था, जो अन्धेरी रात्रि के सन्नाटे में देखा गया था । आह ! युद्ध भूमि में वीरगति को भी हुए, नहीं तो साथ में सती होकर जीवन सुधार लेती ।" प्राप्त न :: रोते-रोते शिशोदिया राजकुमारी के मुखमण्डल ने भयावनी मूर्ति धारण करली । वह सर्पणी के समान फुफकार कर बूढ़े द्वारपाल से बोली "मैं कायर पति का मुँह देखना नहीं चाहती। इस वीर प्रसवा भूमि में रण से भयभीत मनुष्य को आने का अधिकार
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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