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________________ १९२ राजपूतानेके जैन-चीरः ..... (५०३) "रिपुवधुवदनेन्दुहृतद्युतिः समुदपादि विदग्धनृपस्ततः[५*] खाचार्यों रुचिरत्रच [नवा] सुदेवाभिधानवो बो) नीतो दिनकर कर नौरजन्माकरो छ । पूर्व जैनं निजमिव यशोकारयस्तिकुण्डग । रम्य हयं गुरुहिमगिरेः शृङ्गशृङ्गारहारी ॥ [ ६ *] भावार्थ:- राष्ट्रकूट (राठौड़) विदग्धराज ने श्री वासुदेवाचार्य के उपदेश से हस्तिकुण्डी नगरी में जिनराज का मन्दिर करवाया। इस जिन-मन्दिर के निमित्त जो दान दिया गया था, उसके वर्णन के अनन्तरं ३० वी पंक्ति में दान का समय कंहा है:(२३०) "रामगिरिनन्दकलिते विक्रमकाले गते तुं शुचिमासे । श्री मदलभद्रगुरोबिग्धराजेन दत्तमिदम् ॥" भावार्थ:-विदग्धराज ने वि० सं० .९७३ में श्रीवलभद्र आचार्य को उक्त दान दिया। ३. सम्मट:-. . . . . फिर.वि० सं० ९९६ (ई०सन्९३९) में उसके पत्र मम्मट ने उसादान का समर्थन कर दिया कि पीछे से उस में कुछ हानिन 'हो। इस विषय का यह पद्या है:- . ....
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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