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हमें तुरन्त वह बात बहुमान पूर्वक माननी चाहिए। ज्यादा विनती करवाना और तब गाना, यह भी उचित नही । अभिमान रहित, कपट रहित, वडे ही भाव और सरलता पूर्वक हमे परमात्मा के गुणो की तरफ बढना है और दूसरे भाइयो को भी इस तरफ बढने में सहायता देनी है ।
एकान्तरूपेण यह कभी स्थिर नही किया जा सकता कि अमुक कार्य हमे मन्दिरमे करना चाहिए और अमुक नही, फिर भी इतना कहा जा सकता है कि दूसरे भाइयो को क्लेश, अतराय या कपाय उत्पन्न न कराते हुए और न खुद करते हुए सबके साथ प्रेम वढे और परमात्मा के गुणो में अनुराग जागे, ऐसे ही अवलम्वन हम ले । हमे समझ लेना है कि यह परमात्मा की पूजा नही, यह तो अपनी पूजा है यानी इसमे हमारी अपनी महान् भलाई छिपी हुई है ।
इस तरह मन को स्थिर रख सके तो अति उत्तम है पर जैसा हम देखते है मन को रास्ते पर रखना बडा ही विकट है। वर्षो तपस्या करके साधे हुए मन कभी बात की बात में ही पतन हो जाता है । जब -२ हमारे मनका पतन हो इसे ऊँचा उठानेका सतत् प्रयत्न हम चालू रखे । यही प्रयत्न करना मूर्ति पूजा का मुख्य उद्देश्य है । परमात्मा की मूर्ति को देख कर उनके परम गुणो को याद करते हैं, उनकी प्रशंसा करते है और अपने मन की कमजोरी को लतेडते है । यदि अभिमान के कारण मन पतन की ओर गया हो तो उसे समझाते है"छि. छि क्या कर रहा है ? किस बात का तुझे अभिमान है ? साहिबी का, रूप का, पडिताई का, ताकत का ? भूल कर रहा है । यह तो ससार का एक क्षणिक नाटक मात्र है । फिर भी इतना अभिमान, धिक्कार है ! जब महापुरुषो ने ऐसा अभिमान नही किया फिर तू ऐसी भूल क्यों कर रहा है ?" इसी तरह परमात्मा के क्षमा-गुण की सराहना करते है और अपने छिछलेपन को या बदले की भावना को धिक्कारते हैं ।
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इस परम मागलिक प्रयत्न मे यदि किसी की भूल या दुष्टता पर क्रोध आ जाय तो हमे शीघ्र सभल जाना चाहिए। सोचना चाहिए
"मैं यहाँ क्या करने आया हूँ ? जहाँ मेरा लक्ष्य आत्मा में सयम उत्पन्न, करना है, वहाँ मुझको किसी पर किसी भी तरह का कषाय करना कदापि उचित नही । माना कि किसी ने मेरे प्रति अन्याय किया है । अन्याय क्यो सहन
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