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________________ करूं पर नही, मेरी वलिहारी सहनशीलता ही में है। आखिर, मै किस प्लेटफार्म पर हूँ" यह मदिर है, मदिर | मन को साधने आया हूँ। परमात्मा के जीवन पर जव दृष्टिपात करता हूँ तो मालूम पडता है कि इससे भी अनेक गुणा अधिक अन्याय उनके साथ किया गया, पर वे अपने विचारो से जरा भी विचलित नहीं हुए। खूब वीरता पूर्वक उसे सहर्ष सहन किया। तभी आज दुनियाँ उनके चरणो पर मस्तक झुकाती है। उनके जितना तो कहां, उनकी मूर्ति जितना नम्मान भी, अपने जीवन में बहुत कम पुरुपो को मिलता है। यह सब उनके महान गुणो ही का बोलवाला है। फिर में भी ऐसा ही बनने की चेष्टा क्यो न करूं। मुझे भी हर समय क्षमावान् और शान्त रहना चाहिए।" बहनो की तरफ देख कर भी मन मे विकार उत्पन हो सकता है। यहाँ भी हम खूब मावधान रहे। तभी हमारा वचाव हो सकता है। सोचना चाहिए__ "एनी बुरी भावना हो तो मेरे पतन का मूल कारण है। फिर मैं अपने पतन को क्यो न्योता दे रहा हूँ। मवाद, खखार, दस्त, वदबू, रोग आदि से भरी इस देह को टकटकी लगा कर क्या देख रहा हूँ ? क्यो अपने तेज को मिटा रहा हूँ? यह क्या अनर्थ नोच रहा हूँ ? तीर्थकर भगवान कैसे निप्काम रहे । मनुष्यभव रूपी चिन्तामणि को काग उडाने में क्यो व्यर्थ खो रहा हूँ। नही, ऐसे महापुरुषो को मतान होकर, में इतना नही गिरुगा। मै इतना अशक्त कभी नही वनूगा।" इस तरह के गुभ-चिन्तन मे मभव है हमारा बचाव होता रहे। परमात्मा की शान्त मुद्रा को देख कर हम सोचें "हे मेरे प्रभु | महसा विश्वास नहीं होता कि आपने इतने चचल मन पर विजय प्राप्त कर ली। आप धन्य हैं। हे दया-सिन्धु । क्या मैं भी इस दल-दल मे निकलने में समर्थ हो सकूगा? कार्य वडा ही दुष्कर है। अनुमान से आगा नहीं है, कारण मै तो दिन-२ दल-दल में फंसता जा रहा हूँ। हे करुणानिधान ! मेरे हृदय में कपायो का महा घोर अंघड चल रहा है,विपयो की अथाह धारा वह रही है। आप जैसा बनना तो असम्भव-सा लग रहा है। हे नाय | अनन्त वेदना और यत्रणा सहते हुए वडी कठिनता से अनन्त समय बाद तो यह मनुष्य भव मिला है। मेरा जीवन बहुत छोटा है । कौन जाने आगे १८५
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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