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विश्व-स्वरूप
इस त्रिविध तत्त्वदृष्टिमे किन्हीको तीव्र विरोधका दर्शनरूपी तर्काभास चैन नहीं लेने देता। उन्हें इस बातको ध्यानमे रखना होगा, कि तत्त्व-दर्शनकी तीन दृष्टियोके परिणाम-स्वरूप वह सत् त्रयात्मक प्रतीत होता है। विरोध तो तव हो जव एक ही दृष्टिसे तीनो वातोका वर्णन किया जाए। नवीन पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद कहा है और पुरातन पर्यायकी दृष्टिसे व्यय बतलाया है। नवीन पर्यायकी दृष्टिसे उत्पादके समान व्यय कहा जाए अथवा पुरातन पर्यायकी अपेक्षासे ही व्ययके समान उत्पाद माना जाए अथवा ध्रौव्यता स्वीकार की जाए तो विरोध तत्त्वकी अवस्थितिको सकटापन्न बनाए विना न रहेगा। स्याद्वादकी सञ्जीवनीके सस्पर्शको प्राप्त करनेपर विरोधादि विकारोका विष तत्त्वका प्राणापहरण न कर उसे अमर-जीवन प्रदान करता है। इस स्याद्वाद विद्याके विपयमे विशद विवेचन आगे किया जाएगा। इस प्रसगमे इतनी बात ध्यानमे रखनी चाहिए कि कोई वस्तु एकान्तसे स्थितिशील उत्पत्ति अथवा विनाशात्मक नही पायी जाती। अतएव वेदान्तियोका ब्रह्म जितना अधिक सत्य है, उतने ही सत्य अन्य तत्त्व भी है।
विज्ञान-विचारसम्पन्न दार्शनिकचिन्तन तो यह बताता है कि सम्पूर्ण विश्वपर्याय अवस्था ( Modification ) की दृष्टिसे क्षण-क्षणमें परिवर्तनशील है। इस दृष्टिसे तत्त्वको क्षणिक विनाशी अथवा असत्रूप धारण करनेवाला भी कह सकते है। यदि उस तत्त्वपर द्रव्य (Substance) की अपेक्षा विचार करें तो तत्त्वको आदि और अन्तरहित अगीकार करना होगा। सर्वथा असत् या अभावरूप होनेवाली वस्तुको आधुनिक-विज्ञानका पण्डित भी तो नही मानता। वस्तु कितने ही उपायो द्वारा मृत्यु अथवा विनाशके मुखमे प्रविष्ट करायी जाए, उसका समूल नाश न होकर मूलभूत तत्त्व अवश्य अवस्थित रहेगा। इस महान् सत्यको स्वीकार करनेपर विश्व-निर्माण-कर्ता ईश्वरको न मानते हुए भी जगत्की सुव्यवस्था आदिमें बाधा नही पडती, क्योकि यह जगत् सत्स्वरूप